पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव (डूसू) के चुनाव तिथि की घोषणा की गई। इस घोषणा के बाद मैं डीयू परिसर का मिजाज जानने और कुछ छात्र नेताओं से मिलने के लिए कैंपस पहुंचा। कैंपस में गाडि़यों के काफिलों के साथ चलने वाले जिंस और लिनेन की सफेद शर्ट पहने बाउंसरों से लैस आधुनिक छात्र नेताओं को देखने का मौका मिला। एक छात्र संगठन के राष्ट्रीय पदाधिकारी जो हमारे मित्र हैं उनसे कैंपस मे मिलना हुआ और उन्ही के साथ उनके कार्यालय पहुंचा। वहां अपने बॉयोडॉटा के साथ पावर-पैसा और ग्लैमर की नुमाइश करने वाले और डूसू चुनाव के लिए टिकट मांगने वाले टिकटार्थियों का तांता लगा था। वहीं पर छात्र संघ चुनाव लड़ने की हैसियत पाले नेताओं से बातीचीत की। विचार और राजनीतिक संस्कार से मीलों दूर इन छात्र नेताओं को देखकर छात्रसंघ सुधारों के लिए बनी जे. एम. लिंगदोह समिति की सिफारिशें और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) दोनों याद आ गए।
पिछले पांच सालों से जेएनयू मेरा दूसरा घर है। आज भी रात्रि में 1.30 बजे आफिस की नाइट शिफ्ट के बाद मैं रोजाना भोजन और चाय के लिए इस कैंपस के गंगा ढाबा जाता हूं। रात भर खुला रहने वाला यह ढाबा बौद्धिक बहसों के लिए भी जाना जाता है। मेरा राजनीतिक और वैचारिक प्रशिक्षण इसी कैंपस या कहिए गंगा ढाबे पर हुआ है। क्या लेफ्ट क्या राइट, क्या कांग्रेसी क्या नक्सली (माओवादी) सभी विचारधारा के नेताओं को सुनने, जानने और मिलने का मौका मिला। अपने रचनात्मक और विचारात्मक बौद्धिक बहसों के लिए विख्यात जेएनयू के छात्रसंघ के चुनाव को करीब से समझने का मौका भी यहीं नसीब हुआ।
इस विश्वविद्यालय का चुनाव पूरे देश में एक मिसाल है। इसमें छात्र ही चुनाव के लिए निर्वाचन अधिकारियों का चयन करके निष्पक्ष तरीक से चुनाव को संपन्न कराते हैं। छात्रों के द्वारा चुनी गई चुनाव समिति में छात्र ही होते हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन सिर्फ इस चुनाव में अप्रत्यक्ष रूप से ही जुड़ा रहता है। मामूली पैसे या कहिए बिना पैसे के भी हाथ से बने पोस्टरों, नारों और अपने अनूठे सांस्कृतिक गीतों और संगीतों के माध्यम के साथ ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर गंभीर बहसों और भाषणों से पूरा चुनाव आयोजन एक उत्सव की शक्ल ले लेता है। चुनाव के एक दिन पहले अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के बीच झेलम लान में होने वाली प्रेसीडेंसियल डिबेट में तो राष्ट्रीय मीडिया भी जमकर हिस्सेदारी करता है। देश में छात्रों को अराजनीतिक बनाने के दौर में भी जेएनयू का चुनाव एक उदाहरण बनता था और देश के दूसरे विश्वविद्यालयों को साफ सुथरी राजनीति करने की प्रेरणा भी देता था। लेकिन दुर्भाग्य से लिंगदोह समिति ने इस पर ग्रहण लगा दिया। एक अच्छा व्यक्ति, एक अच्छे काम को भी किस प्रकार अपनी नासमझी और अपरिपक्वता से गलत दिशा में मोड़ देता है इसका जीता-जागता उदाहरण जेएम लिंगदोह और उनकी सिफारिशें हैं।
छात्र राजनीति को धनबल और अपराध से मुक्त कराने वाली इस समिति ने विश्वविद्यालय परिसरों से धनबल और बाहुबल को कितना मुक्त कराया है इसको आप दिल्ली विश्वविद्यालय समेत देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में देख सकते हैं। यद्यपि छात्र राजनीति में बिना वैचारिक या राजनीतिक प्रतिबद्धता के बावजूद कुछ लोग छात्रों के वेष में आकर (माफ कीजिएगा ऐ कहिए से छात्र नजर नहीं आते) इसको बदरंग कर रहे हैं। दुर्भाग्य से देश के दो प्रमुख छात्र संगठन भी पैसे और ग्लैमर की चकाचौंध से प्रभावित होकर ऐसे लोगों को अपने संगठनों में जगह दे रहे हैं और खासकर डूसू का टिकट तो ऐसे लोगों को ही दिया जाता है। विश्वविद्यालय परिसरों से इन्हीं अराजक तत्वों को दूर करने के लिए लिंगदोह समिति का गठन किया गया था और इस कमेटी ने जेएनयू छात्रसंघ चुनाव के मॉडल को सबसे आर्दश माना था लेकिन विडंबना है कि इस समिति की सिफारिशों की सबसे पहली गाज इसी चुनाव पर पड़ी।
क्या यह बताने की जरूरत है ! एक लोकतांत्रिक देश में छात्र राजनीति छात्रों को राजनीतिक तौर पर शिक्षित और संस्कारित करने की प्रणाली है। इस प्रणाली में छात्र अपने जनतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूक होते हैं और भविष्य में नेतृत्व करने की शैली का विकास करते हैं। दुर्भाग्य से जिस दिन छात्र राजनीति समाप्त हो जाएगी उस दिन अधिकतर संख्या में कॅरियरिस्ट और खासकर बिजनेसमेन, राजनेता और पूंजीपतियों के बच्चे राजनीति पर कब्जा कर लेंगे। बिना किसी विचारधारा या लोकतंत्र की प्रारंभिक पाठशाला के प्रशिक्षण के बिना ऐसे लोग राजनीति को भी पूंजी बनाने का भी आसान जरिया बना लेंगे। जिसका परिणाम अंततः यह होगा कि आम आदमी की एक दिन लोकतंत्र से आस्था उठ जाएगी।
आज हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था सिर्फ और सिर्फ कॅरियरिस्ट होती जा रही है और इसमें से सामाजिक सरोकारों और राजनीतिक चेतना से संबंधित पक्ष समाप्त होते जा रहे हैं। शिक्षा सिर्फ रोजगार का जरिया ही नहीं बल्कि एक अच्छे नागरिक बनाने की प्रणाली भी है। भारत जैसे बहुदलीय और संसदीय लोकतंत्र वाले देश में क्या सिर्फ रोजगारपरक शिक्षा देकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों का काम है। आज यही कारण है कि छात्र राजनीति के बल पर बड़े और बदलाव और परिवर्तन करने वाले इस देश में कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में पढ़ने वाला छात्र राजनीति को हेय दृष्टि से देखता है और इसमें उसकी कोई गलती भी नहीं है। क्योंकि छात्र राजनीति का जो चेहरा उसके सामने है वह मनी, मसल्स और पावर से भरा हुआ है। आज के छात्रों में राजनीति के प्रति उत्पन्न हो रही इस अरूचि के पीछे छात्र संगठन भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वे केवल अपने मातृ संगठन (राजनीतिक पार्टी) का भोंपू बनकर रह गए हैं। यद्यपि प्रत्येक छात्र संगठन किसी न किसी विचारधारा या राजनीति पार्टी से संबद्ध होता है फिर भी उसकी अपनी एक स्वायतता होती इसलिए उसका मुख्य कार्य छात्रों की मुख्य समस्याओं और मुद्दों को को हल करने के साथ ही छात्रों के लोकतांत्रिक प्रशिक्षण में होना चाहिए।
आज के छात्र राजनीति में बहुत सारी समस्याएं आ गईं हैं लेकिन इसका हल छात्रसंघों पर प्रतिबंध या न्यायालय के हस्तक्षेप से नहीं होगा क्योंकि इन प्रयासों से अराजनीतिकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगा और अपराधी, दलाल, माफिया और समाज के दूसरे भ्रष्ट लोगों को राजनीति में शामिल होने में आसानी होगी। जो अंततः एक दिन हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का नाश करेगी। विश्वविद्यालयों से छात्र राजनीति को अलग करने की साजिश इस देश के एलीट और साधन संपन्न वर्ग की साजिश है। जो राजनीति को देश की सभी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराता है लेकिन अपना लाभ लेने के लिए राजनीति को भ्रष्ट करने और राजनेताओं को बेइमान बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता है। छात्र राजनीति को गाली देने वाले लोगों को हमारे आजादी के नेताओं को याद करना चाहिए जो अपने छात्र जीवन से ही राजनीति तौर पर सक्रिय होकर देश के लिए लड़े और आजादी दिलाई।
जेएनयू के 2006 के छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए सीपीआई (एमएल) के छात्र संगठन आइसा (आल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन) की तरफ से मोना दास और सीपीआई (एम) के छात्र संगठन एसएफआई (स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया) की ओर से सोना मित्रा उम्मीदवार थीं। इन्हीं को चिढ़ाने के लिए कांग्रेस की छात्र शाखा एनएसयूआई (नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया) के लोग नारा लगाते थे ' नहीं चलेगा जादू-टोना, कैंपस छोड़ो सोना-मोना ' आम आदमी के नाम पर फिर से सत्तारूढ़ हुई यूपीए की सरकार और कांग्रेस के युवा प्रतीक राहुल गांधी जी क्या आप सुन रहे हैं ? यहां सोना-मोना देश के आम आदमी की संतान हैं जो छात्र राजनीति में वैचारिक और राजनीतिक तौर पर गांव-देहात से आने वाले आम छात्रों की प्रतिनिधि हैं, जो छात्र राजनीति को बेहतर भविष्य के लिए बदलाव का माध्यम मानती हैं और इन्हीं को आपकी सरकार और आपके लोग अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के जरिए बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं।
पिछले पांच सालों से जेएनयू मेरा दूसरा घर है। आज भी रात्रि में 1.30 बजे आफिस की नाइट शिफ्ट के बाद मैं रोजाना भोजन और चाय के लिए इस कैंपस के गंगा ढाबा जाता हूं। रात भर खुला रहने वाला यह ढाबा बौद्धिक बहसों के लिए भी जाना जाता है। मेरा राजनीतिक और वैचारिक प्रशिक्षण इसी कैंपस या कहिए गंगा ढाबे पर हुआ है। क्या लेफ्ट क्या राइट, क्या कांग्रेसी क्या नक्सली (माओवादी) सभी विचारधारा के नेताओं को सुनने, जानने और मिलने का मौका मिला। अपने रचनात्मक और विचारात्मक बौद्धिक बहसों के लिए विख्यात जेएनयू के छात्रसंघ के चुनाव को करीब से समझने का मौका भी यहीं नसीब हुआ।
इस विश्वविद्यालय का चुनाव पूरे देश में एक मिसाल है। इसमें छात्र ही चुनाव के लिए निर्वाचन अधिकारियों का चयन करके निष्पक्ष तरीक से चुनाव को संपन्न कराते हैं। छात्रों के द्वारा चुनी गई चुनाव समिति में छात्र ही होते हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन सिर्फ इस चुनाव में अप्रत्यक्ष रूप से ही जुड़ा रहता है। मामूली पैसे या कहिए बिना पैसे के भी हाथ से बने पोस्टरों, नारों और अपने अनूठे सांस्कृतिक गीतों और संगीतों के माध्यम के साथ ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर गंभीर बहसों और भाषणों से पूरा चुनाव आयोजन एक उत्सव की शक्ल ले लेता है। चुनाव के एक दिन पहले अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के बीच झेलम लान में होने वाली प्रेसीडेंसियल डिबेट में तो राष्ट्रीय मीडिया भी जमकर हिस्सेदारी करता है। देश में छात्रों को अराजनीतिक बनाने के दौर में भी जेएनयू का चुनाव एक उदाहरण बनता था और देश के दूसरे विश्वविद्यालयों को साफ सुथरी राजनीति करने की प्रेरणा भी देता था। लेकिन दुर्भाग्य से लिंगदोह समिति ने इस पर ग्रहण लगा दिया। एक अच्छा व्यक्ति, एक अच्छे काम को भी किस प्रकार अपनी नासमझी और अपरिपक्वता से गलत दिशा में मोड़ देता है इसका जीता-जागता उदाहरण जेएम लिंगदोह और उनकी सिफारिशें हैं।
छात्र राजनीति को धनबल और अपराध से मुक्त कराने वाली इस समिति ने विश्वविद्यालय परिसरों से धनबल और बाहुबल को कितना मुक्त कराया है इसको आप दिल्ली विश्वविद्यालय समेत देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में देख सकते हैं। यद्यपि छात्र राजनीति में बिना वैचारिक या राजनीतिक प्रतिबद्धता के बावजूद कुछ लोग छात्रों के वेष में आकर (माफ कीजिएगा ऐ कहिए से छात्र नजर नहीं आते) इसको बदरंग कर रहे हैं। दुर्भाग्य से देश के दो प्रमुख छात्र संगठन भी पैसे और ग्लैमर की चकाचौंध से प्रभावित होकर ऐसे लोगों को अपने संगठनों में जगह दे रहे हैं और खासकर डूसू का टिकट तो ऐसे लोगों को ही दिया जाता है। विश्वविद्यालय परिसरों से इन्हीं अराजक तत्वों को दूर करने के लिए लिंगदोह समिति का गठन किया गया था और इस कमेटी ने जेएनयू छात्रसंघ चुनाव के मॉडल को सबसे आर्दश माना था लेकिन विडंबना है कि इस समिति की सिफारिशों की सबसे पहली गाज इसी चुनाव पर पड़ी।
क्या यह बताने की जरूरत है ! एक लोकतांत्रिक देश में छात्र राजनीति छात्रों को राजनीतिक तौर पर शिक्षित और संस्कारित करने की प्रणाली है। इस प्रणाली में छात्र अपने जनतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूक होते हैं और भविष्य में नेतृत्व करने की शैली का विकास करते हैं। दुर्भाग्य से जिस दिन छात्र राजनीति समाप्त हो जाएगी उस दिन अधिकतर संख्या में कॅरियरिस्ट और खासकर बिजनेसमेन, राजनेता और पूंजीपतियों के बच्चे राजनीति पर कब्जा कर लेंगे। बिना किसी विचारधारा या लोकतंत्र की प्रारंभिक पाठशाला के प्रशिक्षण के बिना ऐसे लोग राजनीति को भी पूंजी बनाने का भी आसान जरिया बना लेंगे। जिसका परिणाम अंततः यह होगा कि आम आदमी की एक दिन लोकतंत्र से आस्था उठ जाएगी।
आज हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था सिर्फ और सिर्फ कॅरियरिस्ट होती जा रही है और इसमें से सामाजिक सरोकारों और राजनीतिक चेतना से संबंधित पक्ष समाप्त होते जा रहे हैं। शिक्षा सिर्फ रोजगार का जरिया ही नहीं बल्कि एक अच्छे नागरिक बनाने की प्रणाली भी है। भारत जैसे बहुदलीय और संसदीय लोकतंत्र वाले देश में क्या सिर्फ रोजगारपरक शिक्षा देकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों का काम है। आज यही कारण है कि छात्र राजनीति के बल पर बड़े और बदलाव और परिवर्तन करने वाले इस देश में कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में पढ़ने वाला छात्र राजनीति को हेय दृष्टि से देखता है और इसमें उसकी कोई गलती भी नहीं है। क्योंकि छात्र राजनीति का जो चेहरा उसके सामने है वह मनी, मसल्स और पावर से भरा हुआ है। आज के छात्रों में राजनीति के प्रति उत्पन्न हो रही इस अरूचि के पीछे छात्र संगठन भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वे केवल अपने मातृ संगठन (राजनीतिक पार्टी) का भोंपू बनकर रह गए हैं। यद्यपि प्रत्येक छात्र संगठन किसी न किसी विचारधारा या राजनीति पार्टी से संबद्ध होता है फिर भी उसकी अपनी एक स्वायतता होती इसलिए उसका मुख्य कार्य छात्रों की मुख्य समस्याओं और मुद्दों को को हल करने के साथ ही छात्रों के लोकतांत्रिक प्रशिक्षण में होना चाहिए।
आज के छात्र राजनीति में बहुत सारी समस्याएं आ गईं हैं लेकिन इसका हल छात्रसंघों पर प्रतिबंध या न्यायालय के हस्तक्षेप से नहीं होगा क्योंकि इन प्रयासों से अराजनीतिकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगा और अपराधी, दलाल, माफिया और समाज के दूसरे भ्रष्ट लोगों को राजनीति में शामिल होने में आसानी होगी। जो अंततः एक दिन हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का नाश करेगी। विश्वविद्यालयों से छात्र राजनीति को अलग करने की साजिश इस देश के एलीट और साधन संपन्न वर्ग की साजिश है। जो राजनीति को देश की सभी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराता है लेकिन अपना लाभ लेने के लिए राजनीति को भ्रष्ट करने और राजनेताओं को बेइमान बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता है। छात्र राजनीति को गाली देने वाले लोगों को हमारे आजादी के नेताओं को याद करना चाहिए जो अपने छात्र जीवन से ही राजनीति तौर पर सक्रिय होकर देश के लिए लड़े और आजादी दिलाई।
जेएनयू के 2006 के छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए सीपीआई (एमएल) के छात्र संगठन आइसा (आल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन) की तरफ से मोना दास और सीपीआई (एम) के छात्र संगठन एसएफआई (स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया) की ओर से सोना मित्रा उम्मीदवार थीं। इन्हीं को चिढ़ाने के लिए कांग्रेस की छात्र शाखा एनएसयूआई (नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया) के लोग नारा लगाते थे ' नहीं चलेगा जादू-टोना, कैंपस छोड़ो सोना-मोना ' आम आदमी के नाम पर फिर से सत्तारूढ़ हुई यूपीए की सरकार और कांग्रेस के युवा प्रतीक राहुल गांधी जी क्या आप सुन रहे हैं ? यहां सोना-मोना देश के आम आदमी की संतान हैं जो छात्र राजनीति में वैचारिक और राजनीतिक तौर पर गांव-देहात से आने वाले आम छात्रों की प्रतिनिधि हैं, जो छात्र राजनीति को बेहतर भविष्य के लिए बदलाव का माध्यम मानती हैं और इन्हीं को आपकी सरकार और आपके लोग अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के जरिए बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं।