Friday, August 14, 2009

झूठे वाम न भगवा राम


हम अपनी स्वत्रंत्रता की 62वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं। हमारे भाग्यविधाताओं ने हमे आजादी के साथ दूसरी सबसे बड़ी चीज जो दी वह हमारी संसदीय लोकत्रांत्रिक प्रणाली है। भारत की लोकत्रांत्रिक राजनीति की विविधता, विशालता और अनूठेपन पर न सिर्फ देश बल्कि विदेश भी मोहित है। विभिन्न भाषाओं, सांस्कृतियों, अनेक धर्मों, संप्रदायों और जातियों में विभाजित इस देश में लोकत्रंत्र जिस प्रकार से सफल हुआ है और बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली अपनी तमाम खामियों के बाद भी जिस प्रकार से चल रही है, वह काबिले तारीफ है। आजादी के बाद भारत के पहले आमचुनाव को लेकर संशय और असफलता की घोषणा करने वाले पश्चिम के विद्वान और राजनीति चिंतक तो देश के चौथे आमचुनाव को भारत का आखिरी आमचुनाव करार देते दे चुके थे। लेकिन भारत की आम जनता और राजनेताओं ने इनकी आशंकाओं को गलत साबित करते हुए पंद्रहवीं लोकसभा के सफल आमचुनाव से साबित कर दिया है कि भारत में लोकत्रांत्रिक व्यवस्‍था का महाप्रयोग न सिर्फ सफल हुआ है बल्कि तमाम गड़बडि़यों के बावजूद भी इसकी जड़ें गहरी हुई हैं। अभी कुछ ही महीनों पहले सोलह मई को हमारे लोकत्रंत्र के महापर्व का समापन एक बेहतर और स्थायित्व वाली सरकार के साथ, नब्बे के दशक में शुरू हुई मंडल और कमंडल की राजनीति के अवसान की और संकेत करते हुए हुआ है। प्रंदहवीं लोकसभा के चुनाव इन माएने भी ऐतिहासिक रहे कि एक तरफ जहां गहरी गरीबी और अशिक्षा में जी रही भारत की ग्रामीण जनता ने इन चुनावों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और आज भी मानती है कि उसके जीवन में उजाला वोट के जरिए ही होगा। वहीं प्रगतिशीलता और जागरूकता का ढोंग करने वाली, आतंकी घटनाओं के समय मोमबत्ती जलाकर फिल्मी प्रतिरोध और विरोध जताने वाली शहरी और खासकर उच्चवर्गीय जनता ने फिर से अपने आप को इस उत्सव से अलग रखा जो उनकी नाकामी दिखाता है न कि लोकत्रंत्र की। वैसे तो हर चुनाव में पहले से चले आ रहे ट्रेंड्स टूटते हैं और नए इतिहास रचे जाते हैं। लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा के आमचुनाव ने बहुत सारी धारणाओं को तोड़ा है। 1967 के बाद पहली बार (अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो) बिना किसी खास राष्ट्रीय और भावानात्मक मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे राजनीतिक दलों और चमत्कारिक नेतृत्व के अभाव में भी कोई सत्तारूढ़ दल ने सत्ता में अपनी वापसी की है। वैसे इस चुनाव का विश्‍लेषण राजनीतिकशास्त्री और पार्टियों अपने-अपने स्तर पर की हैं और कुछ कर रही हैं। मैं यहां सिर्फ देश की दो प्रमुख पार्टियों की जो भारत की तथाकथित वामधारा और हिन्दुत्वनिष्ठ दक्षिणपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करती हैं उनके वर्तमान और भविष्य की विवेचना करूंगा है। भारत में दक्षिणपंथी राजनीति का इतिहास तो पुराना है लेकिन इसको संगठित करने और फैलाने में योगदान राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) के उदय और उत्थान के साथ हुआ है। जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी की यात्रा में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का वकालत करने वाली भाजपा ने जिस तरीक से मंदिर-मस्जिद और भावानात्क मुद्दों के आधार पर भारतीय राजनीति को प्रभावित की है उसकी आलोचन तो लोग करते हैं लेकिन आज जरूरत इसके समाजशास्त्रीय अध्ययन की है। राम मंदिर के मुद्दे पर सवार होकर (राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे) सत्ता के निकट पहुंचने वाली फिर सत्ता के लिए अपने मूल मुद्दों और सिद्धातों की तिलांजली देकर कुछ समय के लिए सत्ता में आने वाली पार्टी का हश्र शायद यही होता है या आगे इससे भी बुरा होगा। देश की जनता को आप संप्रदाय के नाम पर बांटकर एक बार तो वोट प्राप्त कर सकते हैं लेकिन बार-बार धार्मिक ध्रुवीकरण करके वोट पाने का ख्वाब कभी हकीकत नहीं बनता। वह भी उस देश में जिसने सांप्रदायिकता के सबसे बुरे दौर को देखा है और जिसका धर्म के नाम पर विभाजन हुआ हो। भारत से धर्म की पहचान और नाम पर अलग होकर बनने वाले देश की हालत कैसी है, यह हमसब देख रहे हैं। सत्ता के लिए धर्म और संस्कृति के नाम पर आंखमिचौली खेलने वाली बीजेपी को उसी की भाषा में जवाब मिला है। कभी जांचा, परखा और खरा का स्लोगन देने वाली भाजपा शायद यह भूल गई कि जांचना, परखना तो जनता का काम है और जनता ने भाजपा को खरा नहीं पाया बल्कि उसकी मिलावट भरी राजनीति को खारिज कर दिया है। भाजपा के रथी से महारथी बनने वाले और फिर इसी रथ पर सवार होकर देश को हांकने (चलाने का) ख्वाब देखने वाले लालकृष्णा आडवाणी को देश की जनता ने धाराशायी कर दिया और कहा कि अब बहुत हो चुका अब आपके जाने का समय हो गया है। लेकिन सवाल यहां यह है कि भाजपा की विदाई हुई है या आडवाणी की? इस पर बहस की जरूरत है।
अब बात देश की वाम राजनीति की- ऐसे समय में जब पूरे विश्‍व में पूंजीवाद छाया हुआ है और वामपंथ को सिर्फ किताबों और अकादमिक जगत तक सीमित रहने की घोषणा की जाती है उसी समय 14वीं लोकसभा के चुनाव में भारत की राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथी जोरदार आगाज करते हैं। किंग तो नहीं लेकिन किंगमेकर बनकर कम्युनिस्ट सरकार की नीतियों को प्रभावित तो जरूरत करते हैं। लेकिन जैसा कि वामपंथियों के बारे में कहा जाता है कि ऐतिहासिक गलती करने वाले और फिर अपनी गलती से सबक न सिखना कम्युनिस्टों का स्थाई गुण होता है। भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते पर सरकार को चुनौती देकर मुंह की खाने वाली वामपंथी शायद इस कथन को सही सिद्ध कर रहे हैं। पंद्रहवीं लोकसभा के आमचुनाव में वामपंथियों को अपने गढ़ में ही जिस प्रकार से पराजय का सामना करना पड़ा है उससे यही लगता है कि क्या भारतीय राजनीति में वामपंथी (खासकर संसदीय राजनीत में भाग लेने वाली सीपीआई और सीपीएम) धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो जाएंगी ? खैर यह तो भविष्य बताएगा। लेकिन इतना तो तय है कि 1967 में पहली बार चुनाव में उतरने वाली लेफ्ट फ्रंट के सबसे बड़े घटक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को इस चुनाव में सबसे अधिक घाटा उठाना पड़ा है और उसे अपने पहले चुनाव से भी कम सीटें मिली हैं। जो दर्शाती है कि अपने मजबूत किले पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम, सिंगूर और अब लालगढ़ शायद संसदीय वामपंथ को आखिरी लाल सलामी देने की जमीन तैयार कर चुके हैं।
बर्षो पहले इन पंक्तियों के लेखक को जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय (जेएनयू) के एक वामपंथी छात्रनेता की मद्दत से नेपाल की सीमा से लगे भारत की तराई में एक गुप्त स्थान पर हो रहे माओवादियों की सभा में जाने का मौका मिल चुका है, जहां पर नेपाली माओवादी नेताओं के साथ ही भारत के वामपंथी चिंतक (खासकर वह जो वर्तमान संसदीय राजनीति में यकीन नहीं करते) उपस्थित थे। यह वह समय था जब गुटों में विभाजित भारत के नक्सली समूहों और खासकर दक्षिण और मध्य में उपस्थित पीडब्ल्यूजी (पीपुल्स वार ग्रुप) और बिहार, बंगाल और उत्तर में सक्रिय एमसीसी (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट सेंटर) का आपस में विलय कर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) सीपीआई माओवादी का गठन हुआ था। वहीं पर एक नारा सुनने को मिला था- झूठा वाम न भगवा राम, यही मांगता हिन्दुस्तान। लेकिन सवाल यह है कि वर्तमान संसदीय राजनीति में विश्‍वास न रखने वाले माओवादी क्या नेपाल के माओवादियों से सबक लेते हुए हिंसा का रास्ता त्यागकर संसदीय राजनीति में शिरकत करेंगे और वोट से सामाजिक परिवर्तन करेंगे? यह तो यक्ष प्रश्‍न्‍ा है और इसका जवाब माओवादी ही दे सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि भारत का जनगण अपनी स्वतंत्रत्रा के 62 साल बाद यही चाहता है।

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