Tuesday, May 4, 2010

आखिर कबतक होती रहेगी ऑनर कीलिंग ?


वो तेज, खुशमिजाज, मेहनती और छोट शहर की बड़े सपने देखने वाली प्रतिभाशाली लड़की थी। अपने सपने को सच करने के लिए वह झारखंड के कोडरमा से चलकर दिल्ली तक पहुंची।

अपनी प्रतिभा की बदौलत वह न सिर्फ देश के सबसे प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान भारतीय जन संचार संस्थान (i.i.m.c.) नई दिल्ली में प्रवेश लिया बल्कि यहां से डिग्री लेकर बिजनेस स्टैंडर्ड जैसे न्यूजपेपर में पत्रकार भी बनी। लेकिन वह भूल कर बैठी। भूल भी ऐसी-वैसी नहीं प्यार करने की। वह भी अपने से दूसरे जाति के लड़के से।

' वैसे प्रेम किया नहीं जाता बल्कि वह हो जाता है और यह प्रत्येक व्यक्ति का नैसर्गिक अधिकार होता है ' लेकिन एक जातिवादी और ब्राम्हणवादी समाज को यह कैसे मंजूर होता कि कोई लड़की बिना उसकी इजाजत के प्रेम करे। अव्वल तो इस पुरातनपंथी समाज की नजर में किसी भी स्त्री को प्रेम क्या कोई भी काम अपनी मर्जी से करने का अधिकार ही नहीं है।

इनकी माने तो प्रेम करने के लिए जाति जरूर पूछना चाहिए, लेकिन सिर्फ जाति पूछने से भी काम नहीं चलेगा, गोत्र भी पूछिए और हो सके तो घरवालों से नो आब्जेक्शन सर्टिफिकेट भी ले लीजिए ! नहीं तो आपका फैसला खाप पंचायतें करेंगी, जातिवादी समाज करेगा।

यह आपको सबक सिखाएगा और आपको फांसी पर लटकाएगा, क्योंकि भारतीय समाज झूठी प्रगतिशिलता, आधुनिकता और सभ्य दिखने का मुखौटा ओढ़े बर्बर समाज है। जो लड़कियों को अपने फैसले करने का हक नहीं देता है। और यही इस हिंसक और दोगले समाज ने निरुपमा पाठक के साथ किया। उसे प्यार करने की सजा के बदले मौत दी गई।

निरुपमा जब पत्रकार बनने की सोची होगी तो स्वभाविक है कि उसके जेहन में भी गैर-बराबरी, जातिवाद, अन्याय और शोषण के खिलाफ लड़ने और वंचितों के पक्ष में अपनी कलम को धार देनी की रही होगी।

लेकिन उसे क्या पता था कि एक दिन वह खुद इस जातिवादी क्रूर समाज का शिकार बन जाएगी। यहां सवाल उठता है कि आखिर कब तक लड़किया ऑनर कीलिंग ( झूठी इज्जत के नाम पर हत्या) का शिकार होती रहेंगी ? कौन इसको रोकने के लिए आगे आएगा ? इन भारतीय तालिबानियों से कौन लड़ेगा ? इसका जवाब हमे आपको खुद से पूछना चाहिए। और इसका जवाब भी हमारे पास है। आप और हम लड़ेंगे।

कैसे ? तो इसका सीधा जवाब है कि अंतरजातीय विवाह करके, ऑनर कीलिंग के दोषियों को सजा दिलवाके। लेकिन इसके लिए हमे अपनी कथनी-करनी एक करनी होगी। जाति का झूठा दंभ छोड़ना होगा। ऊंच-नीच के भेद को समाप्त करना होगा। 'जाति तोड़ों, समाज जोड़ो' के नारे को बुलंद करते हुए खुद को इसमें शामिल करना होगा।

यकीन मानिए जिस दिन जाति की दीवार टूट गई उस दिन देश की अधिकतर समस्याएं अपने आप ही समाप्त हो जाएंगी। आइए एक बार निरुपमा की आत्मा की शांति के लिए बोलिए "जातिवाद का नाश हो"

Wednesday, November 11, 2009

अब कौन लिखेगा कागद कारे


शुक्रवार छह नवंबर की सुबह इंदौर से मित्र अमित सिंह विराट का फोन मुझे आधी नींद में उठाता है। पता चलता है कि पत्रकारिता के शिखर पुरुष प्रभाष जोशी जी नहीं रहे। एकाएक यकीन ही नहीं होता। नींद ऐसे उड़ गई जैसे सोया ही नहीं था। प्रभाष जोशी, मन-मष्तिक में हजारों स्मृतियां उमड़ पड़ती हैं। परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत मेल रखने वाले प्रभाष जी को कैसे याद करूं समझ में ही नहीं आता।

याद आया छात्र राजनीति का वह दौर जब मैं 2001-04 तक लखनऊ विश्‍वविद्यालय में अपने ग्रेजुएशन के दौरान राजनीतिक कार्यकर्ता के रुप में सक्रिय था। उन दिनों प्रदेश में छात्र राजनीति पर प्रतिबंध था। छात्र संघों की बहाली के लिए आंदोलन चलाए जा रहे थे। तब मैं प्रभाष जोशी जी को जनसत्ता के संपादक और रविवार को उनके लिखे कॉलम 'कागद कारे' के रूप में जानता था। राजनीति में रूचि होने की वजह से हर रविवार को उनके लेख का इंतजार रहता था।

राजनीति की गहरी समझ और सभी राजनीतिक दलों से संपर्क होने की वजह से उनके लेख में एक धार और खबरों के पीछे की जो खबर होती है वह दिखती थी। हमेशा नई जानकारियां मिलती थीं। प्रभाष जी से मिलने का मौका लखनऊ विश्‍वविद्यालय में मिला। छात्रसंघों की बहाली को लेकर उनको बुलाया गया। प्रभाष जी लखनऊ आए सभी विचारधारा और विभिन्न पार्टियों से संबद्ध छात्र संगठन के लोगों को संबोधित किया। साथ ही साथ सभी लोगों को पहले अच्छा छात्र फिर नेतागिरी करने की नसीहत भी दी।

यह वही समय था जब छात्र संगठनों में गिरावट का दौर चल रहा था। ठेकेदार और आपराधिक प्रवृत्ति के नए रंगरूट कॉलेजों और विश्‍वविद्यालयों में प्रवेश करके छात्र राजनीति को सीढ़ी बनाकर पॉलिटिक्स में प्रवेश कर रहे थे। इनको खाद पानी देने का काम अपराध से जुड़े और गठबंधन की राजनीति का फायदा उठाकर विधायक से मंत्री बने नेता करते थे। प्रभाष जी यूपी और बिहार जो कभी राजनीतिक आंदोलनों और खासकर जेपी आंदोलन का गवाह रहे वहां राजनीति में आई गिरावट से न सिर्फ चिंतित थे बल्कि अपने जानने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं को चेताते भी रहते थे।

प्रभाष जी सचमुच में एक राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता पहले और पत्रकार बाद में थे। गांधीवादी होते हुए भी क्रिकेट जैसे खेल में उनकी न सिर्फ रूचि थी बल्कि वह इस खेल की बारीकियों को भी समझते थे। पॉलिटिक्स के बाद उनका सबसे प्रिय विषय क्रिकेट ही था। इसे नियति का संयोग ही कहें कि उनकी मृत्यु भी अपने फेवरेट सचिन तेंदुलकर को हैदराबाद में रिकॉर्ड बनाते हुए और इंडिया-ऑस्ट्रेलिया के रोमांचकारी मैच देखते हुए हुआ।

प्रभाष जोशी जी ने पत्रकारिता में क्या योगदान दिया इसपर आलोचक पहले भी और अब उनके जाने के बाद भी बहस करेंगे लेकिन इतना तो तय है कि प्रभाष जी ने हिन्दी पत्रकारिता को आधुनिक बनाने में जो योगदान दिया उसे कोई नकार नहीं सकता। पत्रकारिता के छात्रों के लिए एक रोचक अध्ययन का विषय हो सकता है, जब पत्रकारिता में कुछ खास विषयों जैसे खेल, विज्ञान, इकॉनामी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की कवरेज को सिर्फ अंग्रेजी पत्रकारों का एकाधिकार माना जाता था, हिन्दी पत्रकारों के साथ दोहरा बर्ताव किया जाता था और अंग्रेजी में लिखी मेन कॉपी को ही ट्रांसलेट करके हिन्दी अखबारों में छापा जाता था। उस समय प्रभाष जी ने एक नया और क्रांतिकारी कदम उठाते हुए इस परिपाटी को खत्म करके इन विषयों को कवर करने वाले श्रेष्ठ रिपोर्टरों की टीम तैयार की।

प्रभाष जी हमेशा मौलिक पत्रकारिता के पक्षधर थे। वे ट्रांसलेटेड जर्नलिज्म के खिलाफ थे। इन पंक्तियों के लेखक को प्रभाष जी ने क्रिकेट और राजनीति से जुड़ी बहुत सारी रोचक जानकारियां दी हैं। एक बार मैँने उनसे उनके क्रिकेट प्रेम के बारें में पूछा और शिकायत करते हुए कहा कि आप जैसे सर्वोदयी और गांधीवादी आदमी की क्रिकेट जैसे खेल में रूचि कैसे हुई? प्रभाष जी ने बताया कि वे जब वे इंदौर में थे तभी से उनका इस खेल से जुड़ाव हो गया था।

सीके नायडू जैसे क्रिकेटरों के साथ प्रभाष जी की न सिर्फ यारी थी बल्कि वे उनके साथ कुछ दिन बिता भी चुके थे। जीवन भर खादी और गांधी को अपनाने वाले प्रभाष जी ने क्रिकेट से संबंधित एक रोचक किस्सा सुनाया- एक बार वे क्रिकेट का मक्का कहे जाने वाले लार्ड्स में क्रिकेट मैच कवर करने गए। उस समय वे झक सफेद खादी का धोती कुर्ता पहने हुए थे। उनके साथ मैच कवर कर रहे विदेशी पत्रकार तो उनके ड्रेस को देखकर भौंचक्के रह गए और अनुमान लगाया कि कोई आम भारतीय दर्शक गलती से पत्रकार दीर्घा में आ गया है लेकिन वहां उपस्थित भारतीय भाषा के दूसरे रिपोर्टर प्रभाष जी को तुरंत पहचान लिए। मैच कवर कर रहे विदेशी पत्रकार तो प्रभाष जी के आम भारतीयता के ड्रेस और व्यक्तिव से प्रभावित होकर न सिर्फ उनका अभिवादन किया बल्कि उनके साथ फोटो भी खिंचवाई।

इस पूरे प्रकरण पर प्रभाष जी ने बताया कि उनके कपड़े पर हंसने वाले सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तानी थे। ऐसे बहुत सारे किस्से वे जब मिलते थे तो सुनाया करते थे। राजनीति में पुराने पीढ़ी के नेताओं से संबंधित भी दिलचस्प कहानियां वे सुनाते थे।

प्रभाष जी चले गए लेकिन उनके द्वारा चलाया गया हिन्दी पत्रकारिता को आधुनिक बनाने का आंदोलन कभी रूकने न पाए और हिन्दी पत्रकार कभी भी किसी भेदभाव का शिकार न बने यही सच्चे अर्थों में प्रभाष जी को श्रद्धांजलि होगी।

Tuesday, August 18, 2009

' नहीं चलेगा जादू-टोना, कैंपस छोड़ो सोना-मोना '


पिछले दिनों दिल्ली विश्‍वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव (डूसू) के चुनाव तिथि की घोषणा की गई। इस घोषणा के बाद मैं डीयू परिसर का मिजाज जानने और कुछ छात्र नेताओं से मिलने के लिए कैंपस पहुंचा। कैंपस में गाडि़यों के काफिलों के साथ चलने वाले जिंस और लिनेन की सफेद शर्ट पहने बाउंसरों से लैस आधुनिक छात्र नेताओं को देखने का मौका मिला। एक छात्र संगठन के राष्ट्रीय पदाधिकारी जो हमारे मित्र हैं उनसे कैंपस मे मिलना हुआ और उन्ही के साथ उनके कार्यालय पहुंचा। वहां अपने बॉयोडॉटा के साथ पावर-पैसा और ग्लैमर की नुमाइश करने वाले और डूसू चुनाव के लिए टिकट मांगने वाले टिकटार्थियों का तांता लगा था। वहीं पर छात्र संघ चुनाव लड़ने की हैसियत पाले नेताओं से बातीचीत की। विचार और राजनीतिक संस्कार से मीलों दूर इन छात्र नेताओं को देखकर छात्रसंघ सुधारों के लिए बनी जे. एम. लिंगदोह समिति की सिफारिशें और जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय (जेएनयू) दोनों याद आ गए।

पिछले पांच सालों से जेएनयू मेरा दूसरा घर है। आज भी रात्रि में 1.30 बजे आफिस की नाइट शिफ्ट के बाद मैं रोजाना भोजन और चाय के लिए इस कैंपस के गंगा ढाबा जाता हूं। रात भर खुला रहने वाला यह ढाबा बौद्धिक बहसों के लिए भी जाना जाता है। मेरा राजनीतिक और वैचारिक प्रशिक्षण इसी कैंपस या कहिए गंगा ढाबे पर हुआ है। क्या लेफ्ट क्या राइट, क्या कांग्रेसी क्या नक्सली (माओवादी) सभी विचारधारा के नेताओं को सुनने, जानने और मिलने का मौका मिला। अपने रचनात्मक और विचारात्मक बौद्धिक बहसों के लिए विख्यात जेएनयू के छात्रसंघ के चुनाव को करीब से समझने का मौका भी यहीं नसीब हुआ।

इस विश्‍वविद्यालय का चुनाव पूरे देश में एक मिसाल है। इसमें छात्र ही चुनाव के लिए निर्वाचन अधिकारियों का चयन करके निष्पक्ष तरीक से चुनाव को संपन्न कराते हैं। छात्रों के द्वारा चुनी गई चुनाव समिति में छात्र ही होते हैं। विश्‍वविद्यालय प्रशासन सिर्फ इस चुनाव में अप्रत्यक्ष रूप से ही जुड़ा रहता है। मामूली पैसे या कहिए बिना पैसे के भी हाथ से बने पोस्टरों, नारों और अपने अनूठे सांस्कृतिक गीतों और संगीतों के माध्यम के साथ ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर गंभीर बहसों और भाषणों से पूरा चुनाव आयोजन एक उत्सव की शक्ल ले लेता है। चुनाव के एक दिन पहले अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के बीच झेलम लान में होने वाली प्रेसीडेंसियल डिबेट में तो राष्ट्रीय मीडिया भी जमकर हिस्सेदारी करता है। देश में छात्रों को अराजनीतिक बनाने के दौर में भी जेएनयू का चुनाव एक उदाहरण बनता था और देश के दूसरे विश्‍वविद्यालयों को साफ सुथरी राजनीति करने की प्रेरणा भी देता था। लेकिन दुर्भाग्य से लिंगदोह समिति ने इस पर ग्रहण लगा दिया। एक अच्छा व्यक्ति, एक अच्छे काम को भी किस प्रकार अपनी नासमझी और अपरिपक्वता से गलत दिशा में मोड़ देता है इसका जीता-जागता उदाहरण जेएम लिंगदोह और उनकी सिफारिशें हैं।

छात्र राजनीति को धनबल और अपराध से मुक्‍त कराने वाली इस समिति ने विश्‍वविद्यालय परिसरों से धनबल और बाहुबल को कितना मुक्‍त कराया है इसको आप दिल्ली विश्‍वविद्यालय समेत देश के दूसरे विश्‍वविद्यालयों में देख सकते हैं। यद्यपि छात्र राजनीति में बिना वैचारिक या राजनीतिक प्रतिबद्धता के बावजूद कुछ लोग छात्रों के वेष में आकर (माफ कीजिएगा ऐ कहिए से छात्र नजर नहीं आते) इसको बदरंग कर रहे हैं। दुर्भाग्य से देश के दो प्रमुख छात्र संगठन भी पैसे और ग्लैमर की चकाचौंध से प्रभावित होकर ऐसे लोगों को अपने संगठनों में जगह दे रहे हैं और खासकर डूसू का टिकट तो ऐसे लोगों को ही दिया जाता है। विश्‍वविद्यालय परिसरों से इन्हीं अराजक तत्वों को दूर करने के लिए लिंगदोह समिति का गठन किया गया था और इस कमेटी ने जेएनयू छात्रसंघ चुनाव के मॉडल को सबसे आर्दश माना था लेकिन विडंबना है कि इस समिति की सिफारिशों की सबसे पहली गाज इसी चुनाव पर पड़ी।

क्या यह बताने की जरूरत है ! एक लोकतांत्रिक देश में छात्र राजनीति छात्रों को राजनीतिक तौर पर शिक्षित और संस्कारित करने की प्रणाली है। इस प्रणाली में छात्र अपने जनतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूक होते हैं और भविष्य में नेतृत्व करने की शैली का विकास करते हैं। दुर्भाग्य से जिस दिन छात्र राजनीति समाप्त हो जाएगी उस दिन अधिकतर संख्या में कॅरियरिस्ट और खासकर बिजनेसमेन, राजनेता और पूंजीपतियों के बच्चे राजनीति पर कब्जा कर लेंगे। बिना किसी विचारधारा या लोकतंत्र की प्रारंभिक पाठशाला के प्रशिक्षण के बिना ऐसे लोग राजनीति को भी पूंजी बनाने का भी आसान जरिया बना लेंगे। जिसका परिणाम अंततः यह होगा कि आम आदमी की एक दिन लोकतंत्र से आस्था उठ जाएगी।

आज हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था सिर्फ और सिर्फ कॅरियरिस्ट होती जा रही है और इसमें से सामाजिक सरोकारों और राजनीतिक चेतना से संबंधित पक्ष समाप्त होते जा रहे हैं। शिक्षा सिर्फ रोजगार का जरिया ही नहीं बल्कि एक अच्छे नागरिक बनाने की प्रणाली भी है। भारत जैसे बहुदलीय और संसदीय लोकतंत्र वाले देश में क्या सिर्फ रोजगारपरक शिक्षा देकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना महाविद्यालयों और विश्‍वविद्यालयों का काम है। आज यही कारण है कि छात्र राजनीति के बल पर बड़े और बदलाव और परिवर्तन करने वाले इस देश में कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में पढ़ने वाला छात्र राजनीति को हेय दृष्टि से देखता है और इसमें उसकी कोई गलती भी नहीं है। क्योंकि छात्र राजनीति का जो चेहरा उसके सामने है वह मनी, मसल्स और पावर से भरा हुआ है। आज के छात्रों में राजनीति के प्रति उत्पन्न हो रही इस अरूचि के पीछे छात्र संगठन भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। वे केवल अपने मातृ संगठन (राजनीतिक पार्टी) का भोंपू बनकर रह गए हैं। यद्यपि प्रत्येक छात्र संगठन किसी न किसी विचारधारा या राजनीति पार्टी से संबद्ध होता है फिर भी उसकी अपनी एक स्वायतता होती इसलिए उसका मुख्य कार्य छात्रों की मुख्य समस्याओं और मुद्दों को को हल करने के साथ ही छात्रों के लोकतांत्रिक प्रशिक्षण में होना चाहिए।

आज के छात्र राजनीति में बहुत सारी समस्याएं आ गईं हैं लेकिन इसका हल छात्रसंघों पर प्रतिबंध या न्यायालय के हस्तक्षेप से नहीं होगा क्योंकि इन प्रयासों से अराजनीतिकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगा और अपराधी, दलाल, माफिया और समाज के दूसरे भ्रष्ट लोगों को राजनीति में शामिल होने में आसानी होगी। जो अंततः एक दिन हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का नाश करेगी। विश्‍वविद्यालयों से छात्र राजनीति को अलग करने की साजिश इस देश के एलीट और साधन संपन्न वर्ग की साजिश है। जो राजनीति को देश की सभी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराता है लेकिन अपना लाभ लेने के लिए राजनीति को भ्रष्ट करने और राजनेताओं को बेइमान बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता है। छात्र राजनीति को गाली देने वाले लोगों को हमारे आजादी के नेताओं को याद करना चाहिए जो अपने छात्र जीवन से ही राजनीति तौर पर सक्रिय होकर देश के लिए लड़े और आजादी दिलाई।

जेएनयू के 2006 के छात्रसंघ चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए सीपीआई (एमएल) के छात्र संगठन आइसा (आल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन) की तरफ से मोना दास और सीपीआई (एम) के छात्र संगठन एसएफआई (स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया) की ओर से सोना मित्रा उम्मीदवार थीं। इन्हीं को चिढ़ाने के लिए कांग्रेस की छात्र शाखा एनएसयूआई (नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ इंडिया) के लोग नारा लगाते थे ' नहीं चलेगा जादू-टोना, कैंपस छोड़ो सोना-मोना ' आम आदमी के नाम पर फिर से सत्तारूढ़ हुई यूपीए की सरकार और कांग्रेस के युवा प्रतीक राहुल गांधी जी क्या आप सुन रहे हैं ? यहां सोना-मोना देश के आम आदमी की संतान हैं जो छात्र राजनीति में वैचारिक और राजनीतिक तौर पर गांव-देहात से आने वाले आम छात्रों की प्रतिनिधि हैं, जो छात्र राजनीति को बेहतर भविष्य के लिए बदलाव का माध्यम मानती हैं और इन्हीं को आपकी सरकार और आपके लोग अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के जरिए बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं।

Friday, August 14, 2009

झूठे वाम न भगवा राम


हम अपनी स्वत्रंत्रता की 62वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं। हमारे भाग्यविधाताओं ने हमे आजादी के साथ दूसरी सबसे बड़ी चीज जो दी वह हमारी संसदीय लोकत्रांत्रिक प्रणाली है। भारत की लोकत्रांत्रिक राजनीति की विविधता, विशालता और अनूठेपन पर न सिर्फ देश बल्कि विदेश भी मोहित है। विभिन्न भाषाओं, सांस्कृतियों, अनेक धर्मों, संप्रदायों और जातियों में विभाजित इस देश में लोकत्रंत्र जिस प्रकार से सफल हुआ है और बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली अपनी तमाम खामियों के बाद भी जिस प्रकार से चल रही है, वह काबिले तारीफ है। आजादी के बाद भारत के पहले आमचुनाव को लेकर संशय और असफलता की घोषणा करने वाले पश्चिम के विद्वान और राजनीति चिंतक तो देश के चौथे आमचुनाव को भारत का आखिरी आमचुनाव करार देते दे चुके थे। लेकिन भारत की आम जनता और राजनेताओं ने इनकी आशंकाओं को गलत साबित करते हुए पंद्रहवीं लोकसभा के सफल आमचुनाव से साबित कर दिया है कि भारत में लोकत्रांत्रिक व्यवस्‍था का महाप्रयोग न सिर्फ सफल हुआ है बल्कि तमाम गड़बडि़यों के बावजूद भी इसकी जड़ें गहरी हुई हैं। अभी कुछ ही महीनों पहले सोलह मई को हमारे लोकत्रंत्र के महापर्व का समापन एक बेहतर और स्थायित्व वाली सरकार के साथ, नब्बे के दशक में शुरू हुई मंडल और कमंडल की राजनीति के अवसान की और संकेत करते हुए हुआ है। प्रंदहवीं लोकसभा के चुनाव इन माएने भी ऐतिहासिक रहे कि एक तरफ जहां गहरी गरीबी और अशिक्षा में जी रही भारत की ग्रामीण जनता ने इन चुनावों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और आज भी मानती है कि उसके जीवन में उजाला वोट के जरिए ही होगा। वहीं प्रगतिशीलता और जागरूकता का ढोंग करने वाली, आतंकी घटनाओं के समय मोमबत्ती जलाकर फिल्मी प्रतिरोध और विरोध जताने वाली शहरी और खासकर उच्चवर्गीय जनता ने फिर से अपने आप को इस उत्सव से अलग रखा जो उनकी नाकामी दिखाता है न कि लोकत्रंत्र की। वैसे तो हर चुनाव में पहले से चले आ रहे ट्रेंड्स टूटते हैं और नए इतिहास रचे जाते हैं। लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा के आमचुनाव ने बहुत सारी धारणाओं को तोड़ा है। 1967 के बाद पहली बार (अगर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो) बिना किसी खास राष्ट्रीय और भावानात्मक मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे राजनीतिक दलों और चमत्कारिक नेतृत्व के अभाव में भी कोई सत्तारूढ़ दल ने सत्ता में अपनी वापसी की है। वैसे इस चुनाव का विश्‍लेषण राजनीतिकशास्त्री और पार्टियों अपने-अपने स्तर पर की हैं और कुछ कर रही हैं। मैं यहां सिर्फ देश की दो प्रमुख पार्टियों की जो भारत की तथाकथित वामधारा और हिन्दुत्वनिष्ठ दक्षिणपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करती हैं उनके वर्तमान और भविष्य की विवेचना करूंगा है। भारत में दक्षिणपंथी राजनीति का इतिहास तो पुराना है लेकिन इसको संगठित करने और फैलाने में योगदान राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) के उदय और उत्थान के साथ हुआ है। जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी की यात्रा में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का वकालत करने वाली भाजपा ने जिस तरीक से मंदिर-मस्जिद और भावानात्क मुद्दों के आधार पर भारतीय राजनीति को प्रभावित की है उसकी आलोचन तो लोग करते हैं लेकिन आज जरूरत इसके समाजशास्त्रीय अध्ययन की है। राम मंदिर के मुद्दे पर सवार होकर (राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे) सत्ता के निकट पहुंचने वाली फिर सत्ता के लिए अपने मूल मुद्दों और सिद्धातों की तिलांजली देकर कुछ समय के लिए सत्ता में आने वाली पार्टी का हश्र शायद यही होता है या आगे इससे भी बुरा होगा। देश की जनता को आप संप्रदाय के नाम पर बांटकर एक बार तो वोट प्राप्त कर सकते हैं लेकिन बार-बार धार्मिक ध्रुवीकरण करके वोट पाने का ख्वाब कभी हकीकत नहीं बनता। वह भी उस देश में जिसने सांप्रदायिकता के सबसे बुरे दौर को देखा है और जिसका धर्म के नाम पर विभाजन हुआ हो। भारत से धर्म की पहचान और नाम पर अलग होकर बनने वाले देश की हालत कैसी है, यह हमसब देख रहे हैं। सत्ता के लिए धर्म और संस्कृति के नाम पर आंखमिचौली खेलने वाली बीजेपी को उसी की भाषा में जवाब मिला है। कभी जांचा, परखा और खरा का स्लोगन देने वाली भाजपा शायद यह भूल गई कि जांचना, परखना तो जनता का काम है और जनता ने भाजपा को खरा नहीं पाया बल्कि उसकी मिलावट भरी राजनीति को खारिज कर दिया है। भाजपा के रथी से महारथी बनने वाले और फिर इसी रथ पर सवार होकर देश को हांकने (चलाने का) ख्वाब देखने वाले लालकृष्णा आडवाणी को देश की जनता ने धाराशायी कर दिया और कहा कि अब बहुत हो चुका अब आपके जाने का समय हो गया है। लेकिन सवाल यहां यह है कि भाजपा की विदाई हुई है या आडवाणी की? इस पर बहस की जरूरत है।
अब बात देश की वाम राजनीति की- ऐसे समय में जब पूरे विश्‍व में पूंजीवाद छाया हुआ है और वामपंथ को सिर्फ किताबों और अकादमिक जगत तक सीमित रहने की घोषणा की जाती है उसी समय 14वीं लोकसभा के चुनाव में भारत की राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथी जोरदार आगाज करते हैं। किंग तो नहीं लेकिन किंगमेकर बनकर कम्युनिस्ट सरकार की नीतियों को प्रभावित तो जरूरत करते हैं। लेकिन जैसा कि वामपंथियों के बारे में कहा जाता है कि ऐतिहासिक गलती करने वाले और फिर अपनी गलती से सबक न सिखना कम्युनिस्टों का स्थाई गुण होता है। भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते पर सरकार को चुनौती देकर मुंह की खाने वाली वामपंथी शायद इस कथन को सही सिद्ध कर रहे हैं। पंद्रहवीं लोकसभा के आमचुनाव में वामपंथियों को अपने गढ़ में ही जिस प्रकार से पराजय का सामना करना पड़ा है उससे यही लगता है कि क्या भारतीय राजनीति में वामपंथी (खासकर संसदीय राजनीत में भाग लेने वाली सीपीआई और सीपीएम) धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो जाएंगी ? खैर यह तो भविष्य बताएगा। लेकिन इतना तो तय है कि 1967 में पहली बार चुनाव में उतरने वाली लेफ्ट फ्रंट के सबसे बड़े घटक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को इस चुनाव में सबसे अधिक घाटा उठाना पड़ा है और उसे अपने पहले चुनाव से भी कम सीटें मिली हैं। जो दर्शाती है कि अपने मजबूत किले पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम, सिंगूर और अब लालगढ़ शायद संसदीय वामपंथ को आखिरी लाल सलामी देने की जमीन तैयार कर चुके हैं।
बर्षो पहले इन पंक्तियों के लेखक को जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय (जेएनयू) के एक वामपंथी छात्रनेता की मद्दत से नेपाल की सीमा से लगे भारत की तराई में एक गुप्त स्थान पर हो रहे माओवादियों की सभा में जाने का मौका मिल चुका है, जहां पर नेपाली माओवादी नेताओं के साथ ही भारत के वामपंथी चिंतक (खासकर वह जो वर्तमान संसदीय राजनीति में यकीन नहीं करते) उपस्थित थे। यह वह समय था जब गुटों में विभाजित भारत के नक्सली समूहों और खासकर दक्षिण और मध्य में उपस्थित पीडब्ल्यूजी (पीपुल्स वार ग्रुप) और बिहार, बंगाल और उत्तर में सक्रिय एमसीसी (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट सेंटर) का आपस में विलय कर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) सीपीआई माओवादी का गठन हुआ था। वहीं पर एक नारा सुनने को मिला था- झूठा वाम न भगवा राम, यही मांगता हिन्दुस्तान। लेकिन सवाल यह है कि वर्तमान संसदीय राजनीति में विश्‍वास न रखने वाले माओवादी क्या नेपाल के माओवादियों से सबक लेते हुए हिंसा का रास्ता त्यागकर संसदीय राजनीति में शिरकत करेंगे और वोट से सामाजिक परिवर्तन करेंगे? यह तो यक्ष प्रश्‍न्‍ा है और इसका जवाब माओवादी ही दे सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि भारत का जनगण अपनी स्वतंत्रत्रा के 62 साल बाद यही चाहता है।

Thursday, August 13, 2009

आइए स्वतंत्रता की 62वीं वर्षगांठ पर एक शपथ लें

1–- भारत की बहुलतावादी लोकतंत्र की सफलता पर गर्व जरूर करेंगे लेकिन आत्मगुग्धता से बचते हुए राजनीतिक प्रणाली में आ रही खामियों और सड़ांध को दूर करने का प्रयास करेंगे।
2- एक पत्रकार के तौर पर हम अन्याय और शोषण के खिलाफ लगातार आवाज उठाते रहेंगे और अपने देश के शोषित, गरीब, अशिक्षित और बेजुबान जनता की आवाज बनेंगे।
3- जनता के जनत्रांत्रिक अधिकारों के खातिर अपने देश की चुनी हुई सरकारों और नीति बनाने वाले नेताओं (सांसद, विधायक, पार्षद और दूसरे जनप्रतिनिधियों) को बार-बार याद दिलाएंगे कि उनका चुनाव जनता की मूलभूत सुविधाओं को पूरा करने के लिए हुआ है इसलिए वे शासक की जगह सेवक की भूमिका में रहें।
4- चुनी गईं सरकारों और राजनीतिक पार्टियों को उनके वादों और घोषणपत्रों की याद दिलाएंगे, जो वे चुनाव के समय जनता से की हैं और जनता इसी के आधार पर उनको चुनी है।
5- अगर कोई जनप्रतिनिधि जनता का काम करने में आनाकानी करेगा तो उसे बार-बार जनता के मुद्दों की याद दिलाकर उसपर दबाव बनाएंगे और उसे शर्मिंदा करेंगे।
6- एक लोकत्रांत्रिक देश के नागरिक और बहुदलीय व्यवस्था वाले देश के नागरिक तौर पर हमारी किसी विचारधारा, पार्टी और
नेता में आस्था हो सकती है लेकिन एक पत्रकार के तौर पर हम न सिर्फ इससे बल्कि जाति, धर्म, संप्रदाय और भाषा के स्तर पर कभी भी भेदभाव नहीं करेंगे।
7- कलम ही हम पत्रकारों का हथियार है इसलिए हम इसका इस्तेमाल जनता के असली मुद्दों को बार-बार उठाने में करेंगे। सड़क, बिजली, पानी, गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं के पैमाने पर हो रही प्रगति से जनता को अवगत कराते हुए सरकारों से हिसाब-किताब मांगते रहेंगे।

इससे देश की जनता जागरूक होगी और अपने अधिकारों की मांग करेगी जिसके परिणाम स्वरूप जनता में जागृति आएगी, उसी दिन हमारे भ्रष्ट और बेइमान राजनेताओं के साथ ही ब्यूरोक्रेट भी लाइन पर आ जाएंगे। यहीं हमारा आज के दिन कर्तव्य है।